Thursday, October 15, 2009

बरसे बरस लक्ष्मी न्यारी...

धनतेरस पर बरसे धन,
चौदस पर चमके चन्दन.

पावस बने अमावस काली,
गोवर्धन पर हो खुशहाली.

भाईदूज पर दुआ हमारी -
बरसे बरस लक्ष्मी न्यारी...

Wednesday, September 30, 2009

भारतीय राजनीति का आधार है वंशवाद

शुरूवात में विपक्षियों ने कांग्रेस में नेहरू वंशवाद का झंडा बुलंद करके वोटरों को लुभाने का सस्ता हथकंडा अपनाया, बाद में भाजपा, सपा, राजद, डीएमके और एनसीपी भी उसी राह चल पड़ीं। बुद्धिजीवी भी इसकी आलोचना पर उतर आए हैं। मैं मानता हूं कि यह वर्ग भी अब बुद्धिजीवी कम और भावुक ज्यादा हो रहा है। यानी, दिमाग पर दिल हावी हो रहा है जो अच्छे संकेत कतई नहीं हैं।

आबादी और क्षेत्रफल का गणित
दरअसल हम भूल जाते हैं कि हम दक्षिण एशियाई मिट्टी के बाशिंदे हैं, जहां की आबादी का घनत्व क्षेत्रफल से काफी ज्यादा है। इसीलिए यहां उत्पादन के मुकाबले खपत का प्रतिशत काफी ज्यादा रहता है। परिणाम यह होता है कि सिर्फ मुठ्ठी भर लोग ही इस खपत के हिस्सेदार बन पाते हैं, बाकी की जनता गरीबी और गुरबत में पूरी जिंदगी काट देती है।

संघर्ष में गुम होता राजनीतिक सामथ्र्य
रोजी-रोटी की जुगाड़ में दिन कब खत्म हो जाता है, इसका इल्म होते-होते बुढ़ापा आ चुका होता है। इसी जुगाड़ केबीच यहां के गरीबों को जो अनुभव मिलते हैं उनमें अंधविश्वास, धर्म और जातियों की बैसाखी इनकी आत्मा के भीतर ऊर्जा भरती रहती है। ऐसे में संघर्ष और भावनाओं के हिचकोलों के बीच इन बहुसंख्यकों में राजनीति करने का सामथ्र्य ही नहीं रहता।

गरीबों पर इतिहास का दंश
चाहे भारत हो या पाकिस्तान या बांग्लादेश अथवा अफगानिस्तान या नेपाल या श्रीलंका, सभी जगह हालात एक जैसे हैं। इतिहास खंगाल लें - मुठ्ठी भर सवर्णों ने अपना घर ही भरा, और विरासत में अपने वंश को वर्चस्व बनाए रखने की ऊर्जा दी। जबकि दलित, आदिवासी, हरिजन और पिछड़ी हुई बड़ी आबादी सिर्फ क्षेत्रफल के मुकाबले पैदावार की कमी का दंश झेलती रही। ''परचेजिंग कैपेसिटी'' उसके हाथ लगी ही नहीं।

सवर्णों का वर्गीकरण और अपनों को रेवड़ी बांटना
इन सवर्णों में भी वर्गीकरण हो गया, और काम के आधार पर सबने अपने-अपने हित साध लिये। मसलन, मुल्ला-मौलवी और ब्राह्मणों ने शिक्षा की जिम्मेदारी संभाल ली, लड़ाकों ने अपने-अपने इलाके बांट लिए और सामाज की रक्षा का संकल्प ले लिया। जो बचे उन्होंने हुंडी, ब्याज-बट्टा और व्यापार का दारोमदार संभाल लिया। इन्होंने अपने-अपनों को जी-भरकर रेवड़ी बांटी और वंशजों को हुनर के तौर-तरीके सिखाए।

दलित सिर्फ सवर्णों के 'राजनीतिक टॉनिक'
अपनों को रेवड़ी बांटने वाली इस व्यवस्था के प्रति क्षेत्रवादी खिन्नता से उपजे कुछेक दलित या आदिवासी या पिछड़े नेता उपजे हैं, लेकिन राजनीति में सिर्फ सवर्णों ने ही एक-दूसरे का साथ दिया। क्षेत्रवादी नेता सिर्फ इन सवर्णों के 'उपभोग का सामान' या 'राजनीतिक टॉनिक' साबित होते रहे। इसीलिए आज तक कहीं कोई भी दलित, पिछड़ा या आदिवासी नेता वंशानुगत राजनीति का हिस्सा नहीं बन सका। दरअसल उसका तात्कालीन दोहन तो हुआ लेकिन उसे राजनीति जारी रखने का बौद्धिक कौशल नहीं मिला।

राजनीति का चुनाव राजनीति से ज्यादा आसान
ये गरीब लोग सवर्णों द्वारा संचालित राजनीति की दिशा का चुनाव तो कर सकते हैं, लेकिन खुद राजनीति नहीं कर सकते, क्योंकि उनके संघर्ष की पहली पायदान पर परिवार की प्राथमिक जरूरतें आ खड़ी होती है। इनकी आपूर्ति ताउम्र नहीं हो पाती, इसलिए अगली पीढ़ी भी उन्हीं प्राथमिक जरूरतों में ही खपती रहती है। दूसरी तरफ सवर्ण अपने हिस्से का एक निवाला भी गरीबों की झोली में डालना चाहते नहीं।

वंशवाद खत्म हुआ तो फैल सकती है अराजकता
यानी यहां वंशवाद की फसल बोने, काटने और ढोने का काम तो दलित और पिछड़े लोग करते हैं, लेकिन इसके दाने पर तो उसी का नाम लिखा होता है, जिसका खेत पर अधिकार होता है। भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देशों की ये एक जरूरत भी है। अन्यथा एक बड़ी आबादी भूखों मर जाएगी। उसे न तो काम मिलेगा और ना ही हड्डीतोड़ मेहनत के बाद भीख में मिला अनाज। यह परिस्थिति 1930 और हाल ही की वैश्विक आर्थिक मंदी से भी खतरनाक और अमानवीय होगी।

फिर बताएं कौन चाहेगा अपने परिवार के पेट पर लात मारना... इससे तो अच्छा है वंशवाद!!!!

Friday, August 28, 2009

चौबीस घंटे, दो झूठ! पर्दे पीछे बेवकूफ?

झूठ नं. 1 - पोखरण-2 परमाणु परीक्षण में शामिल वैज्ञानिकों का कहना कि मई 1998 में भारत की कामयाबी महज एक छलावा थी। झूठ नं. 2 - हालैंड राष्ट्रीय संग्रहालय के कर्मचारियों का बयान कि पिछले 40 वर्षों से उन्होंने जिस 'पत्थर के टुकड़े' को ''चांद का टुकड़ा'' मानकर संभाले रखा, वह महज एक ''लकड़ी का टुकड़ा'' है।

पहले झूठ का पर्दाफाश (?) उस वक्त परमाणु परीक्षण टीम में शामिल वैज्ञानिक संथानम ने किया, जिनके पक्ष में अन्य वैज्ञानिक भी हैं। पूर्व राष्ट्रपति व तात्कालीन महानिदेशक कलाम, और तात्कालीन परमाणु ऊर्जा विभाग प्रमुख आर. चिदम्बरम ने इसे यह कहकर बेतुका कहा कि तब कुल पांच परीक्षण हुए थे, जिनमें तीन 11 मई को और दो 13 मई को हुए थे। थर्मोन्यूक्लियर विस्फोट 13 मई को हुआ था, जो सफल था।

सवाल यह उठता है कि 11 नहीं, 13 मई ही सही, लेकिन जमीन से सौ मीटर नीचे जहां यह परीक्षण हुआ वहां विस्फोट के बाद ''क्रेटर'' निशान क्यों नहीं बने? उधर संथानम ने सलाह भी दे डाली है कि भारत को अपनी सुरक्षा के लिए और परीक्षण करने चाहिए तथा किसी भी कीमत पर सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने चाहिए।

यानी देश और दुनिया की निगाहों में खुद को मजबूत बताने की सरकारी मुहिम हमारे सामरिक वजूद के साथ समझौते के रूप में पूरी हुई। इसका प्रतिफल डॉ. कलाम को तो राष्ट्रपति बनाकर मिल गया, लेकिन इन वैज्ञानिकों के हाथ कुछ नहीं आया।

दूसरी तरफ, पूर्व डच प्रधानमंत्री विलेम ड्रीस की 1988 में मृत्यु के बाद उनके पास रखे एक पत्थर को हालैंड की राजधानी एम्सटर्डम के संग्रहालय में संजोकर रखा गया। यह पत्थर अपोलो-11 के अंतरिक्ष यात्रियों की हालैंड यात्रा के वक्त अमेरिका के तात्कालीन राजदूत मिलेनडार्फ ने डच प्रधानमंत्री को भेंट किया था। लेकिन अब पता चला है कि यह लकड़ी का एक टुकड़ा है जो समय के साथ कड़ा होकर पत्थर जैसा हो गया था।

यानी या तो अपोलो-11 के अंतरिक्ष यात्रियों ने इतना बड़ा झूठ डच प्रधानमंत्री को भेंट कर दिया, अथवा संग्रहालय के लोगों ने ही पीछे के दरवाजे से कोई हेराफेरी कर डाली है।

बेवकूफों का सच!

1) दोनों ही हालातों में आम जनता सिर्फ बेवकूफ बनकर तालियां पीटती रही, सच्चाई का उसे पता ही नहीं।
2) दूसरी तरफ इसी आम जनता को इससे कोई सरोकार भी नहीं। बस जितनी तालियां बजा लीं, समझो बाबा रामदेव का योगासन कर लिया।
3) तभी तो 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस करने वाली, उसके बाद गुजरात दंगे भुगतने वाली और हाल ही में समलैंगिकता पर तालियां बजाने वाली जनता इतने बड़े झूठ को बस चुपचाप पी गई।

Saturday, August 22, 2009

कोख में किसका है बीज!!!

देना पड़ेगा इम्तेहान,
जन्नत में है ऐसा रिवाज़।
हर कदम अंगार पे,
साबित करे अपना मिज़ाज।

इक रोज़ शौहर ने जो पूछा,
कोख में किसका है बीज।
आंख भर आई जो साबित -
हो गया उसका ही साज़।

मैं अकेला ही चला था,
यूं बदलने आसमां।
पहले पैबंदे-निशां पे,
दूं सफाई देख आज।

सुन ले जन्नत के खुदा,
तेरी नियामत के निसार,
बेजान कदमों को उठाना -
है मुझे, जो लाइलाज।

Tuesday, August 11, 2009

स्वाइन फ्लू कहीं मेडिकल आतंकवाद तो नहीं?

स्वाइन फ्लू के नाम पर जो भय का माहौल बनाया जा रहा है कहीं वह अंतरराष्ट्रीय मेडिकल आतंकवाद का हिस्सा तो नहीं? पीडि़त व परिजनों से माफी चाहूंगा, क्योंकि उनका दर्द वही समझते हैं। लेकिन देश में स्वाइन फ्लू से अब तक 10 मरे हैं, इसी अवधि में भुखमरी, कुपोषण या गंदगी से होने वाली बीमारियां सैकड़ों को लील चुकी हैं।

प्लेग, एन्थ्रेक्स, ड्रॉप्सी, बर्ड फ्लू पर भी हुए वारे-न्यारे
इससे पहले भी हैपेटाइटिस-बी से बचाव के नाम पर करोड़ों-अरबों का कारोबार किया जा चुका है। खसरा और पोलियो उन्मूलन के दावे भी किये गये, लेकिन वैक्सीनेशन के बावजूद बीमारी आज भी है। प्लेग, ड्रॉप्सी, एंथ्रेक्स और बर्ड फ्लू जैसी बीमारियों के नाम भी सुनने में आए। प्रभावितों की संख्या भी काफी बताई गई, लेकिन मरने वालों की तादाद 10, 12 या 15 से ज्यादा सुनने में नहीं आई, वह भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर। इससे कहीं ज्यादा लोग तो भूकंप या चक्रवाती तूफान में मारे जाते हैं।

आर्थिक मंदी से जूझने का उपाय तो नहीं?
मैं यह नहीं कह रहा कि इन बीमारियों से मरने वालों के लिए इलाज नहीं खोजा जाय, बल्कि ये कहना चाहता हूं कि बीमारियों के इन खतरनाक नामों और उनके असर का डर बताकर विकसित देश अरबों का कारोबार करते रहे हैं। कहीं स्वाइन फ्लू केबहाने यह आर्थिक मंदी से जूझने का कोई उपाय तो नहीं?

स्वाइन फ्लू डर के बाद मेडिकल बाजार में उछाल!
अंदाजा लगाईए, कि जो मास्क तीन माह पहले सिर्फ दस रुपये में मिलता था आज उसकी कीमत 95 रु. से भी ज्यादा तक है। इसकेअलावा इस मौसम में सर्दी-जुकाम और वायरल अक्सर फैलते हैं, जिनका इलाज साधारण दवाओं से हो जाता है, लेकिन अब हर आदमी उन्हीं लक्षणों में अपने खून और दूसरी जांच कराता फिर रहा है। जाहिर है कि डॉक्टरों और मेडिकल लेबोरेटरी के साथ साथ कमीशन का धंधा भी खूब चल पड़ा है।

सरकार भी कई हजार अरब का बजट बनाकर स्वास्थ्य सेवाओं का विकास करेगी और वैक्सीनेशन के नाम पर अरबों-खरबों का कारोबार होगा सो अलग।

भुखमरी, कुपोषण से मरने वालों की तादाद
दूसरी तरफ भुखमरी और कुपोषण से मरने वालों की तादाद रोकने के लिए महज अनाज और सस्ती सेवाएं हाशिये पर चलीं जाएं, तो कोई बात नहीं। गंदगी के चलते मच्छर मारने के लिए फॉगिंग और नालियों की सफाई का बजट भी स्वाइन फ्लू की भेंट चढ़ जाए तो कोई परेशानी नहीं। आपको जानकर हैरानी होगी कि देश में पिछले तीन माह के दरम्यान भुखमरी के चलते 103 किसान या तो आत्महत्या कर चुके हैं, या मर चुकेहैं। सूरत में हीरा व्यवसाय चौपट होने के चलते इन्हीं तीन महीनों में 37 लोग काल-कवलित हो चुके हैं। कुपोषण केचलते हर माह सैकड़ों बच्चे मौत की नींद सो जाते हैं।

डेंगू, वायरल और चिकनगुनिया से मरते हैं ज्यादा लोग
डेंगू, वायरल या चिकनगुनिया का प्रकोप भी इन्हीं दिनों शुरू होता है और कईयों को मौत दे जाता है। लेकिन न तो सरकार इस भूख से मरने वालों को रोक पाल रही हैं, और न ही मंदी में व्यवसाय चौपट होने के चलते बेरोजगारों को आत्महत्या करने से रोक पा रही है। और तो और मच्छर मारने केलिए कारगर उपाय भी नहीं हो पा रहे हैं, लेकिन स्वाइन फ्लू के नाम पर होने वाला कारोबार जरूर कई सवाल छोड़ रहा है।

Wednesday, August 5, 2009

मिलाओ न सुर अजानों से, ये राग भड़क जाएगा

कुरेदोगे दिल की जानिब, ये घाव दरक जाएगा।
मिलाओ न सुर अजानों से, ये राग भड़क जाएगा।

हम तो समेट ही लेते, मुठ्ठी में आसमां यूं ही
क्या खबर मंजिल से ही, ये पांव सरक जाएगा।

अब ये सिला हमको कुबूल, दोजख में जो रुलाएगा।
लो हटा लो तुम नकाब, ये दांव पलट जाएगा।

क्यूं नाखुदा है बेरहम इतना कि सबको नागवार,
आओ चलें उस पार हम, ये जाम छलक जाएगा।

हुस्ने-खता हमसे हुई, क्यों हो रहा सबको मलाल।
नीची नजर कर लो जरा, ये गांव बहक जाएगा।

खानाबदोशी में शबे चश्मनम हम आफताब,
बस ला इलाही अल सहर, ये दाग झटक जाएगा।

(जून २००८ को राष्ट्रीय पत्र में प्रकाशित)

Tuesday, August 4, 2009

राखी बांधोगी..? मिलेगा सिंगट्टा..!!

झांसी के पास टीकमगढ़ जिले का गांव है जतारा। पांच रक्षाबंधन इसी गांव में 1978 तक मनाए। हम बच्चे हों या हमसे बड़े किशोर अथवा युवा, सभी लोगों के चेहरे राखी के तीन दिन पहले से खिल जाते थे। मन में उत्साह रहता था कि बहनिया कलाई पर फूल जैसी राखी सजाएगी और बदले में देंगे सिंगट्टा..!! दरअसल कमाते तो थे नहीं, मम्मी-डैडी जो देते वही अपनी बहन को सौंपना पड़ता था। दो रुपये मिलते थे बहन को देने के लिए, उसमें भी एक रुपया ज्वाइंट गुल्लक में चला जाता और बहन के हिस्से का एक रुपया भी हम मिलकर खा-पी जाते।

अब न गांव की वो गलियां हैं, न वह किशोर और युवा जो गांव में किसी की भी लड़की को तीन दिन पहले से बहन के नजरिये से देखना शुरू करते और सोचते कि फलां-फलां की बहन से राखी बंधवाकर क्या उपहार दूं? मंदी के बाजार से गुल्लक भी गायब है और महंगाई की मार में दो रुपये की कीमत भी कितनी हो गयी इसका हिसाब नहीं। इन 31 वर्षों में अगर कुछ बचा है तो सिर्फ सिंगट्टा..!! और उसने भी अपना मूल अर्थ खो दिया...

इस बार रक्षाबंधन से तीन दिन पहले फ्रैण्डशिप डे चलन में आया। गाजियाबाद की लम्बी पतली गली में सजने वाले तुराब नगर बाजार के भीतर अपने पैरों पर वैक्स करा ऊंची जींस पहने लड़कियां राखी की दुकानों पर फ्रैण्डशिप बैण्ड पसन्द कर रही थीं। किशोर और युवाओं की आंखें भी राखियों से सजे बाजार में रंगीनी तलाश रही थीं। मतलब यह कतई नहीं कि राखियों की बिक्री नहीं हो रही थी, नई ब्याहताएं अपने पतियों के साथ तफरीह करते हुए और रूढि़वादी लड़कियां भावुक होकर रक्षाबंधन को औपचारिक और अनौपचारिकता के बीच सावन का झूला झुलाने की कोशिश में जुटी थीं। मतलब यह कि अब राखी की दुकान पर फ्रैण्डशिप डे के रंगीन रिस्ट बैण्ड दिखा रहे थे पारम्परिक राखियों को सिंगट्टा..!!

(वैसे 1935 में अमेरिका में जन्म लेने वाली फ्रैण्डशिप डे की कहानी भी कम मार्मिक नहीं है। हुआ यूं कि इस वर्ष अगस्त के पहले शनिवार को अमेरिकी सरकार के आदेश के चलते एक व्यक्ति को मार डाला गया। अगले ही दिन अपने दोस्त की याद में उसके दोस्त ने आत्महत्या कर ली। बाद में सरकार को पता चला कि जिसे मारा गया था वह दोषी नहीं था, बल्कि दोषी उसका दोस्त था, जिसके लिए पहले व्यक्ति ने मौत कुबूल ली, और असली आरोपी ने दोस्त की मौत से क्षुब्ध होकर अपनी जान दे दी। इसी की याद में अमेरिका में प्रत्येक अगस्त माह के पहले रविवार को फ्रैण्डशिप डे मनाया जाने लगा। लेकिन हमने इसके अर्थ को भी सिंगट्टा लगा दिया।)

बहरहाल आज रक्षाबंधन के ठीक एक दिन पहले सुकून तब मिला जब अपनी कार ठीक कराने के लिए एक गैरेज पर मैं रुका। मैकेनिक ने कहा गाड़ी सर्विस मांग रही है, मैंने कहा कल छुट्टी है कितने बजे छोड़ दूं। मैकेनिक तपाक से बोल पड़ा - "साहब कल का दिन कमाई का नहीं, कमाई लुटाने का दिन है.. अपनी बहनों पर... कमाई तो करूंगा सिर्फ उनके प्यार की...."

वाकई मुझे पसंद आया कार मैकेनिक का ये सिंगट्टा..!! जो उसने इन 31 वर्षों के भीतर मेरे व्यक्तित्व में आए दृष्टिकोण-परिवर्तन को दिखाया.....

Saturday, August 1, 2009

पत्थरों का शहर

ये शहर है पत्थरों का, बेगाना कोई नहीं
इन दरख्तो-शाख में अब, याराना कोई नहीं।


शीशा-ए-बुत चूर होगा, इल्म है सबको मगर,
इस मदरसे का खलीफा, मौलाना कोई नहीं।


कब्र हैं, ताबूत भी हैं, दौड़ती लाशें यहां,
कील सबके हाथ में है, अंजाना कोई नहीं।


मुफलिसों की भीड़ में दो-चार गिनती के खुदा,
बोलते हैं आसमां से, हर्जाना कोई नहीं।


उठ रहे दरिया की जानिब, नाखुदा ये बुलबुले,
खुश न हो इतना ऐ साकी, पैमाना कोई नहीं।


क्यों फकत इल्ज़ाम ले लें, कत्ल का मगरूर हम,
कातिबी खाके-चमन की, बैनामा कोई नहीं।

Friday, July 31, 2009

पंडित - मौलवी गरियाते रहे, समलिंगी जस के तस रहे???

हैदराबाद में एक मोहल्ला है - दिलसुख नगर, पांच साल पहले इस मोहल्ले में तीन परिवार रहा करते थे। पहला परिवार रविकांत का था, जिसमें उनकी पत्नी सुनीता और पैरों से लाचार दस साल का बेटा राजू एक किराए के मकान में रहते थे। दूसरा परिवार अनवर मियां का था, जिन्होंने तीन में से पहली बदसूरत बीवी को तलाक दे दिया था। वह अपनी दो औलादों के साथ अलग मोहल्ले में रहती थी। जबकि दूसरी से अनवर मियां को तीन बेटियां और तीसरी से एक बेटा और एक बेटी थी। तीसरा परिवार या यूं कहें कि घर था फातिमा और दुर्गा का, जो पिछले तीन साल से साथ-साथ रहती थीं।

रविकांत और सुनीता ने अपाहिज बेटे की अच्छी परवरिश के लिए दूसरे बच्चे के बारे में सोचा तक नहीं। दस साल का अपाहिज राजू वहीं स्कूल में छठी कक्षा का प्रतिभाशाली छात्र था, लेकिन उसे दो किलोमीटर दूर स्कूल लाने ले जाने के लिए न तो रिक्शेवाला जिम्मेदारी उठाता था और न ही स्कूल बस वाला, क्योंकि गोद में क्लासरूम तक छोडऩा कोई आसान काम नहीं था। पिता सुबह स्कूल छोड़कर आते और मां दोपहर में घर ले आती। अधिक वजन उठाने के चलते रविकांत स्लिप डिश के शिकार हो चुके थे।

लेकिन कुनबे के किसी भी सज्जन को रविकांत के परिवार पर कभी तरस नहीं आया। दूर से ही हमदर्दी तो जताते थे, लेकिन साथ निभाने के लिए कोई नहीं था। रविकांत के छोटे भाई के साथ भोपाल में उसकी विधवा मां रहती थी, लेकिन छोटे भाई और उसकी पत्नी ने उन्हें वृंदावन के महिला आश्रम में गुरूजी के पास भेज दिया, ताकि बुढ़ापे में भगवान का भजन बिना किसी बाधा के कर सकें। बेचारे रविकांत चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी पत्नी सुनीता भी नहीं चाहती थीं कि सास-मां उनके साथ रहें। फिर पहले ही क्या कम परेशानियां थीं उन्हें....

अनवर मियां के पास खाने को कुछ नहीं था, ले-देकर घर के आगे एक छोटा सा गैराज था, जो उनकी दो बीवियों और पांच औलादों को रोटी देता था। पहली तलाकशुदा बदसूरत बीवी का एक लड़का भी यहीं काम करता और शाम को कमाई का एक हिस्सा अपने साथ ले जाता। लेकिन बड़ी हिम्मत थी अनवर मियां में, जो दोंनों बीवियों की क्लेश और बच्चों की चिल्ल-पौं के बीच हिम्मत नहीं हारे थे। बल्कि अब इस जंजाल से पार पाने के लिए अपनी एक और चचेरी बहन से निकाह का प्रस्ताव भेजने की सोच रहे थे।

बच्चों को स्कूल भेजना इसलिए मुफीद नहीं समझतेे, क्योंकि लार्ड मैकाले की शिक्षा कहीं बच्चों को इस्लाम का बागी न बना दे। जबकि सच्चाई यह थी कि सरकारी स्कूल की फीस देने तक के पैसे उनके पास नहीं होते थे। मदरसे में ही अलिफ-बे सिखाकर अनवर मियां ने उन्हें घर बिठा लिया। उन्हें अल्लाह पर पूरा भरोसा था कि वो चौथी बीवी और उससे होने वाले प्यारे बच्चों के लिए भी सारी जुगाड़ कर देगा।

वहीं तीसरा घर था जिसमें पिछले तीन साल से फातिमा और दुर्गा दो सहेलियां रह रही थीं, दीन-दुनिया से बेखबर। पूरे मोहल्ले की निगाहें इसी घर पर लगी रहतीं कि कब, क्या कर रही हैं ये लड़कियां। दरअसल दोंनों ही सहेलियां अपने-अपने घरों से भागकर साथ-साथ रह रही थीं, बस यूं ही... समझ लो ठीक उसी तरह जैसे शादी-शुदा लोग रहते हैं। मोहल्ले के लड़कों को ईष्र्या थी कि इस खूबसूरत माल पर उनकी ठेकेदारी क्यों नहीं? और शादी-शुदा लोगों को डर इस बात का था कि कहीं मोहल्ले का माहौल न बिगड़ जाए। इसीलिए पिछले दो साल से मोहल्ले का पंडित हो या मौलाना, सभी एकजुट होकर इन्हें खदेडऩे के प्रयास में लगे रहे।

मोहल्ले में जो हो रहा था, वो इस तरह -

1) न तो कोई पंडित या साथी रविकांत के अपाहिज बच्चे की पीड़ा को समझ पाया।

2) न किसी ने रविकांत की मां को वृंदावन के महिला आश्रम से बेटों के पास बसाने की सोची।

3) न कोई मौलवी अनवर मियां के बच्चों को फ्री में शिक्षा देने को आगे आया।

4) न किसी ने अनवर मियां की फाकापस्ती रोकी, ताकि इतनी पल्टन का मोहल्ले को फायदा मिले।

5) न कोई अनवर मियां को चौथी बीवी लाने से रोकने को आगे आया।

6) सब के सब फातिमा और दुर्गा को मोहल्ले से निकालने में लगे रहे, लेकिन निकाल नहीं पाए।

आज पांच साल बाद जो जानकारी मिली वो इस तरह -

1. रविकांत स्लिप-डिश और दूसरी बीमारियों के चलते पिछले साल ही गुजर गए। अब उनकी बीवी अपाहिज बेटे के साथ वृंदावन में अपनी सास के पास चली गयी हैं।

2. अनवर मियां की पहली बीवी के बारह साल के बेटे ने तीसरी बीवी से पैदा हुए छोटे भाई का कत्ल कर दिया, और अब फरार है।

3. दोंनों सहेलियां आज भी मोहल्ले वालों के तानों के बीच वहीं रह रही हैं।



Wednesday, July 22, 2009

चारदीवारी....

जिसने जलाया पहला दिया
अँधेरे के खिलाफ,
हमने भी इस युद्ध में
बुहारकर अपना घर-आँगन
रोशन किया...
खड़ी की चारदीवारी,
तूफ़ान थामने को -
युद्ध में अकेला नहीं -
पहला दिया.

माना अन्धकार ही पहला सच,
नहीं मिटायेंगे जंगल में -
उसका वजूद,
घर-आँगन में रोशन
कई दीपक, एक साथ...
आओ मरम्मत करें,
ढहने न दें चारदीवारी.

सच के दो वजूदों का टकराव -
ला न दे तूफ़ान कहीं?
मरम्मत करते रहेंगे हम, चारदीवारी.
कहीं नज़र न गढा दे मुआ,
उस पार का अन्धकार....

इस पार -
खोखला होता वजूद,
सारी उम्र, बस यूं ही -
मज़बूत करते रहे, चारदीवारी...

Tuesday, July 21, 2009

समलैंगिकता पर इतनी हाय-तौबा! आखिर किसलिए ?

यदि कोई विकलांग है तो क्या उसे त्याग देना चाहिए? यदि किसी का बेटा या भाई पागल है तो क्या उसे ख़त्म कर देना चाहिए? यदि किसी की बहन या बेटी बाँझ है तो क्या उसे मार देना चाहिए??? अगर नहीं, तो समलैंगिकों पर इतनी बहस के बजाय उनके साथ इंसानियत जैसा व्यवहार क्यों नहीं करना चाहिए? हम अपनी विकलांग औलाद या बाँझ बेटी अथवा बहन का घर बसाने के लिए तो कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं, झूठ भी बोलना पड़े तो पीछे नहीं हटते, लेकिन समलैंगिकता के मुद्दे पर गाली बकना शुरू कर देते हैं.

अरे भाई! ये लोग भी हाड-मॉस के इंसान हैं, इनमें भी मन और भाव हैं. किसी निम्न जाति के इंसान को जाति सूचक शब्द इस्तेमाल करने पर तो संविधान में मुकदमा कायम करने की सिफारिश की गयी है, फिर लोकतंत्र का कमंडल उठाने वाले इस देश में समलैंगिकों के साथ दोहरा मापदंड क्यों? जबकि हम सब जानते हैं कि ये एक मनोरोग है.

दरअसल पिछले कई वर्षों में हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है, अब जब वही प्रकृति हमारे साथ खिलवाड़ कर रही है तो हम उसे पचा नहीं पा रहे हैं. कालांतर में महिला-पुरुष अनुपात में एक बड़ा अंतर आया है. इसके लिए भी हमारा समाज ही जिम्मेदार है.

इस अंतर के अलावा पढाई या जॉब के फेर में हमने शादी की उम्र के साथ भी समझौता करने की ठान ली, और नाम दिया "मॉडर्न" होने का. स्वाभाविक है कि कई मर्यादाओं के चलते यदि विपरीत लिंगी सम्बन्ध नहीं बन पाते हैं तो शारीरिक ज़रूरतों की मजबूरी के चलते समलिंगी सम्बन्ध पनप जाते हैं. सेना और कई साल तक एक जैसे पेशे में जुटे लोगों के बीच भी ऐसे सम्बन्ध बन जाते हैं.

अधिकाँश लोग विषम लिंगी संपर्क में आने पर पुराने सम्बन्ध ख़त्म कर देते हैं, लेकिन कुछ लोग उसी तरह के संबंधों को जारी रखने के आदी हो जाते हैं. ऐसे लोग बमुश्किल प्रति हज़ार में औसतन तीन या चार होते हैं. सवाल ये उठता है कि जिन बातों के लिए हम और हमारा समाज प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिम्मेदार हैं, क्या उसे एक कानून में बांधकर अन्याय दूर करने की इस अदालती कार्यवाही को भी हम गलत ठहराना चाहते हैं?

मैं नहीं मानता कि कुछ लोगों के इस व्यवहार को कानूनी रूप मिल जाने से आम मनुष्य के प्राकृतिक व्यवहार में कोई बदलाव आयेगा. पहले भी समाज में समलैंगिक लोग होते थे, लेकिन उन्हें कानूनी मान्यता नहीं मिली थी. अब सिर्फ ऐसे मनोरोगियों को कानून साथ रहने की इजाज़त दे रहा है. इससे 99.98 फीसद लोगों की जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, इसलिए ऐसे मामलों पर हमें बहस से बचना चाहिए.