Wednesday, September 30, 2009

भारतीय राजनीति का आधार है वंशवाद

शुरूवात में विपक्षियों ने कांग्रेस में नेहरू वंशवाद का झंडा बुलंद करके वोटरों को लुभाने का सस्ता हथकंडा अपनाया, बाद में भाजपा, सपा, राजद, डीएमके और एनसीपी भी उसी राह चल पड़ीं। बुद्धिजीवी भी इसकी आलोचना पर उतर आए हैं। मैं मानता हूं कि यह वर्ग भी अब बुद्धिजीवी कम और भावुक ज्यादा हो रहा है। यानी, दिमाग पर दिल हावी हो रहा है जो अच्छे संकेत कतई नहीं हैं।

आबादी और क्षेत्रफल का गणित
दरअसल हम भूल जाते हैं कि हम दक्षिण एशियाई मिट्टी के बाशिंदे हैं, जहां की आबादी का घनत्व क्षेत्रफल से काफी ज्यादा है। इसीलिए यहां उत्पादन के मुकाबले खपत का प्रतिशत काफी ज्यादा रहता है। परिणाम यह होता है कि सिर्फ मुठ्ठी भर लोग ही इस खपत के हिस्सेदार बन पाते हैं, बाकी की जनता गरीबी और गुरबत में पूरी जिंदगी काट देती है।

संघर्ष में गुम होता राजनीतिक सामथ्र्य
रोजी-रोटी की जुगाड़ में दिन कब खत्म हो जाता है, इसका इल्म होते-होते बुढ़ापा आ चुका होता है। इसी जुगाड़ केबीच यहां के गरीबों को जो अनुभव मिलते हैं उनमें अंधविश्वास, धर्म और जातियों की बैसाखी इनकी आत्मा के भीतर ऊर्जा भरती रहती है। ऐसे में संघर्ष और भावनाओं के हिचकोलों के बीच इन बहुसंख्यकों में राजनीति करने का सामथ्र्य ही नहीं रहता।

गरीबों पर इतिहास का दंश
चाहे भारत हो या पाकिस्तान या बांग्लादेश अथवा अफगानिस्तान या नेपाल या श्रीलंका, सभी जगह हालात एक जैसे हैं। इतिहास खंगाल लें - मुठ्ठी भर सवर्णों ने अपना घर ही भरा, और विरासत में अपने वंश को वर्चस्व बनाए रखने की ऊर्जा दी। जबकि दलित, आदिवासी, हरिजन और पिछड़ी हुई बड़ी आबादी सिर्फ क्षेत्रफल के मुकाबले पैदावार की कमी का दंश झेलती रही। ''परचेजिंग कैपेसिटी'' उसके हाथ लगी ही नहीं।

सवर्णों का वर्गीकरण और अपनों को रेवड़ी बांटना
इन सवर्णों में भी वर्गीकरण हो गया, और काम के आधार पर सबने अपने-अपने हित साध लिये। मसलन, मुल्ला-मौलवी और ब्राह्मणों ने शिक्षा की जिम्मेदारी संभाल ली, लड़ाकों ने अपने-अपने इलाके बांट लिए और सामाज की रक्षा का संकल्प ले लिया। जो बचे उन्होंने हुंडी, ब्याज-बट्टा और व्यापार का दारोमदार संभाल लिया। इन्होंने अपने-अपनों को जी-भरकर रेवड़ी बांटी और वंशजों को हुनर के तौर-तरीके सिखाए।

दलित सिर्फ सवर्णों के 'राजनीतिक टॉनिक'
अपनों को रेवड़ी बांटने वाली इस व्यवस्था के प्रति क्षेत्रवादी खिन्नता से उपजे कुछेक दलित या आदिवासी या पिछड़े नेता उपजे हैं, लेकिन राजनीति में सिर्फ सवर्णों ने ही एक-दूसरे का साथ दिया। क्षेत्रवादी नेता सिर्फ इन सवर्णों के 'उपभोग का सामान' या 'राजनीतिक टॉनिक' साबित होते रहे। इसीलिए आज तक कहीं कोई भी दलित, पिछड़ा या आदिवासी नेता वंशानुगत राजनीति का हिस्सा नहीं बन सका। दरअसल उसका तात्कालीन दोहन तो हुआ लेकिन उसे राजनीति जारी रखने का बौद्धिक कौशल नहीं मिला।

राजनीति का चुनाव राजनीति से ज्यादा आसान
ये गरीब लोग सवर्णों द्वारा संचालित राजनीति की दिशा का चुनाव तो कर सकते हैं, लेकिन खुद राजनीति नहीं कर सकते, क्योंकि उनके संघर्ष की पहली पायदान पर परिवार की प्राथमिक जरूरतें आ खड़ी होती है। इनकी आपूर्ति ताउम्र नहीं हो पाती, इसलिए अगली पीढ़ी भी उन्हीं प्राथमिक जरूरतों में ही खपती रहती है। दूसरी तरफ सवर्ण अपने हिस्से का एक निवाला भी गरीबों की झोली में डालना चाहते नहीं।

वंशवाद खत्म हुआ तो फैल सकती है अराजकता
यानी यहां वंशवाद की फसल बोने, काटने और ढोने का काम तो दलित और पिछड़े लोग करते हैं, लेकिन इसके दाने पर तो उसी का नाम लिखा होता है, जिसका खेत पर अधिकार होता है। भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देशों की ये एक जरूरत भी है। अन्यथा एक बड़ी आबादी भूखों मर जाएगी। उसे न तो काम मिलेगा और ना ही हड्डीतोड़ मेहनत के बाद भीख में मिला अनाज। यह परिस्थिति 1930 और हाल ही की वैश्विक आर्थिक मंदी से भी खतरनाक और अमानवीय होगी।

फिर बताएं कौन चाहेगा अपने परिवार के पेट पर लात मारना... इससे तो अच्छा है वंशवाद!!!!