Friday, July 31, 2009

पंडित - मौलवी गरियाते रहे, समलिंगी जस के तस रहे???

हैदराबाद में एक मोहल्ला है - दिलसुख नगर, पांच साल पहले इस मोहल्ले में तीन परिवार रहा करते थे। पहला परिवार रविकांत का था, जिसमें उनकी पत्नी सुनीता और पैरों से लाचार दस साल का बेटा राजू एक किराए के मकान में रहते थे। दूसरा परिवार अनवर मियां का था, जिन्होंने तीन में से पहली बदसूरत बीवी को तलाक दे दिया था। वह अपनी दो औलादों के साथ अलग मोहल्ले में रहती थी। जबकि दूसरी से अनवर मियां को तीन बेटियां और तीसरी से एक बेटा और एक बेटी थी। तीसरा परिवार या यूं कहें कि घर था फातिमा और दुर्गा का, जो पिछले तीन साल से साथ-साथ रहती थीं।

रविकांत और सुनीता ने अपाहिज बेटे की अच्छी परवरिश के लिए दूसरे बच्चे के बारे में सोचा तक नहीं। दस साल का अपाहिज राजू वहीं स्कूल में छठी कक्षा का प्रतिभाशाली छात्र था, लेकिन उसे दो किलोमीटर दूर स्कूल लाने ले जाने के लिए न तो रिक्शेवाला जिम्मेदारी उठाता था और न ही स्कूल बस वाला, क्योंकि गोद में क्लासरूम तक छोडऩा कोई आसान काम नहीं था। पिता सुबह स्कूल छोड़कर आते और मां दोपहर में घर ले आती। अधिक वजन उठाने के चलते रविकांत स्लिप डिश के शिकार हो चुके थे।

लेकिन कुनबे के किसी भी सज्जन को रविकांत के परिवार पर कभी तरस नहीं आया। दूर से ही हमदर्दी तो जताते थे, लेकिन साथ निभाने के लिए कोई नहीं था। रविकांत के छोटे भाई के साथ भोपाल में उसकी विधवा मां रहती थी, लेकिन छोटे भाई और उसकी पत्नी ने उन्हें वृंदावन के महिला आश्रम में गुरूजी के पास भेज दिया, ताकि बुढ़ापे में भगवान का भजन बिना किसी बाधा के कर सकें। बेचारे रविकांत चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी पत्नी सुनीता भी नहीं चाहती थीं कि सास-मां उनके साथ रहें। फिर पहले ही क्या कम परेशानियां थीं उन्हें....

अनवर मियां के पास खाने को कुछ नहीं था, ले-देकर घर के आगे एक छोटा सा गैराज था, जो उनकी दो बीवियों और पांच औलादों को रोटी देता था। पहली तलाकशुदा बदसूरत बीवी का एक लड़का भी यहीं काम करता और शाम को कमाई का एक हिस्सा अपने साथ ले जाता। लेकिन बड़ी हिम्मत थी अनवर मियां में, जो दोंनों बीवियों की क्लेश और बच्चों की चिल्ल-पौं के बीच हिम्मत नहीं हारे थे। बल्कि अब इस जंजाल से पार पाने के लिए अपनी एक और चचेरी बहन से निकाह का प्रस्ताव भेजने की सोच रहे थे।

बच्चों को स्कूल भेजना इसलिए मुफीद नहीं समझतेे, क्योंकि लार्ड मैकाले की शिक्षा कहीं बच्चों को इस्लाम का बागी न बना दे। जबकि सच्चाई यह थी कि सरकारी स्कूल की फीस देने तक के पैसे उनके पास नहीं होते थे। मदरसे में ही अलिफ-बे सिखाकर अनवर मियां ने उन्हें घर बिठा लिया। उन्हें अल्लाह पर पूरा भरोसा था कि वो चौथी बीवी और उससे होने वाले प्यारे बच्चों के लिए भी सारी जुगाड़ कर देगा।

वहीं तीसरा घर था जिसमें पिछले तीन साल से फातिमा और दुर्गा दो सहेलियां रह रही थीं, दीन-दुनिया से बेखबर। पूरे मोहल्ले की निगाहें इसी घर पर लगी रहतीं कि कब, क्या कर रही हैं ये लड़कियां। दरअसल दोंनों ही सहेलियां अपने-अपने घरों से भागकर साथ-साथ रह रही थीं, बस यूं ही... समझ लो ठीक उसी तरह जैसे शादी-शुदा लोग रहते हैं। मोहल्ले के लड़कों को ईष्र्या थी कि इस खूबसूरत माल पर उनकी ठेकेदारी क्यों नहीं? और शादी-शुदा लोगों को डर इस बात का था कि कहीं मोहल्ले का माहौल न बिगड़ जाए। इसीलिए पिछले दो साल से मोहल्ले का पंडित हो या मौलाना, सभी एकजुट होकर इन्हें खदेडऩे के प्रयास में लगे रहे।

मोहल्ले में जो हो रहा था, वो इस तरह -

1) न तो कोई पंडित या साथी रविकांत के अपाहिज बच्चे की पीड़ा को समझ पाया।

2) न किसी ने रविकांत की मां को वृंदावन के महिला आश्रम से बेटों के पास बसाने की सोची।

3) न कोई मौलवी अनवर मियां के बच्चों को फ्री में शिक्षा देने को आगे आया।

4) न किसी ने अनवर मियां की फाकापस्ती रोकी, ताकि इतनी पल्टन का मोहल्ले को फायदा मिले।

5) न कोई अनवर मियां को चौथी बीवी लाने से रोकने को आगे आया।

6) सब के सब फातिमा और दुर्गा को मोहल्ले से निकालने में लगे रहे, लेकिन निकाल नहीं पाए।

आज पांच साल बाद जो जानकारी मिली वो इस तरह -

1. रविकांत स्लिप-डिश और दूसरी बीमारियों के चलते पिछले साल ही गुजर गए। अब उनकी बीवी अपाहिज बेटे के साथ वृंदावन में अपनी सास के पास चली गयी हैं।

2. अनवर मियां की पहली बीवी के बारह साल के बेटे ने तीसरी बीवी से पैदा हुए छोटे भाई का कत्ल कर दिया, और अब फरार है।

3. दोंनों सहेलियां आज भी मोहल्ले वालों के तानों के बीच वहीं रह रही हैं।



Wednesday, July 22, 2009

चारदीवारी....

जिसने जलाया पहला दिया
अँधेरे के खिलाफ,
हमने भी इस युद्ध में
बुहारकर अपना घर-आँगन
रोशन किया...
खड़ी की चारदीवारी,
तूफ़ान थामने को -
युद्ध में अकेला नहीं -
पहला दिया.

माना अन्धकार ही पहला सच,
नहीं मिटायेंगे जंगल में -
उसका वजूद,
घर-आँगन में रोशन
कई दीपक, एक साथ...
आओ मरम्मत करें,
ढहने न दें चारदीवारी.

सच के दो वजूदों का टकराव -
ला न दे तूफ़ान कहीं?
मरम्मत करते रहेंगे हम, चारदीवारी.
कहीं नज़र न गढा दे मुआ,
उस पार का अन्धकार....

इस पार -
खोखला होता वजूद,
सारी उम्र, बस यूं ही -
मज़बूत करते रहे, चारदीवारी...

Tuesday, July 21, 2009

समलैंगिकता पर इतनी हाय-तौबा! आखिर किसलिए ?

यदि कोई विकलांग है तो क्या उसे त्याग देना चाहिए? यदि किसी का बेटा या भाई पागल है तो क्या उसे ख़त्म कर देना चाहिए? यदि किसी की बहन या बेटी बाँझ है तो क्या उसे मार देना चाहिए??? अगर नहीं, तो समलैंगिकों पर इतनी बहस के बजाय उनके साथ इंसानियत जैसा व्यवहार क्यों नहीं करना चाहिए? हम अपनी विकलांग औलाद या बाँझ बेटी अथवा बहन का घर बसाने के लिए तो कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं, झूठ भी बोलना पड़े तो पीछे नहीं हटते, लेकिन समलैंगिकता के मुद्दे पर गाली बकना शुरू कर देते हैं.

अरे भाई! ये लोग भी हाड-मॉस के इंसान हैं, इनमें भी मन और भाव हैं. किसी निम्न जाति के इंसान को जाति सूचक शब्द इस्तेमाल करने पर तो संविधान में मुकदमा कायम करने की सिफारिश की गयी है, फिर लोकतंत्र का कमंडल उठाने वाले इस देश में समलैंगिकों के साथ दोहरा मापदंड क्यों? जबकि हम सब जानते हैं कि ये एक मनोरोग है.

दरअसल पिछले कई वर्षों में हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है, अब जब वही प्रकृति हमारे साथ खिलवाड़ कर रही है तो हम उसे पचा नहीं पा रहे हैं. कालांतर में महिला-पुरुष अनुपात में एक बड़ा अंतर आया है. इसके लिए भी हमारा समाज ही जिम्मेदार है.

इस अंतर के अलावा पढाई या जॉब के फेर में हमने शादी की उम्र के साथ भी समझौता करने की ठान ली, और नाम दिया "मॉडर्न" होने का. स्वाभाविक है कि कई मर्यादाओं के चलते यदि विपरीत लिंगी सम्बन्ध नहीं बन पाते हैं तो शारीरिक ज़रूरतों की मजबूरी के चलते समलिंगी सम्बन्ध पनप जाते हैं. सेना और कई साल तक एक जैसे पेशे में जुटे लोगों के बीच भी ऐसे सम्बन्ध बन जाते हैं.

अधिकाँश लोग विषम लिंगी संपर्क में आने पर पुराने सम्बन्ध ख़त्म कर देते हैं, लेकिन कुछ लोग उसी तरह के संबंधों को जारी रखने के आदी हो जाते हैं. ऐसे लोग बमुश्किल प्रति हज़ार में औसतन तीन या चार होते हैं. सवाल ये उठता है कि जिन बातों के लिए हम और हमारा समाज प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिम्मेदार हैं, क्या उसे एक कानून में बांधकर अन्याय दूर करने की इस अदालती कार्यवाही को भी हम गलत ठहराना चाहते हैं?

मैं नहीं मानता कि कुछ लोगों के इस व्यवहार को कानूनी रूप मिल जाने से आम मनुष्य के प्राकृतिक व्यवहार में कोई बदलाव आयेगा. पहले भी समाज में समलैंगिक लोग होते थे, लेकिन उन्हें कानूनी मान्यता नहीं मिली थी. अब सिर्फ ऐसे मनोरोगियों को कानून साथ रहने की इजाज़त दे रहा है. इससे 99.98 फीसद लोगों की जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, इसलिए ऐसे मामलों पर हमें बहस से बचना चाहिए.