Tuesday, July 21, 2009

समलैंगिकता पर इतनी हाय-तौबा! आखिर किसलिए ?

यदि कोई विकलांग है तो क्या उसे त्याग देना चाहिए? यदि किसी का बेटा या भाई पागल है तो क्या उसे ख़त्म कर देना चाहिए? यदि किसी की बहन या बेटी बाँझ है तो क्या उसे मार देना चाहिए??? अगर नहीं, तो समलैंगिकों पर इतनी बहस के बजाय उनके साथ इंसानियत जैसा व्यवहार क्यों नहीं करना चाहिए? हम अपनी विकलांग औलाद या बाँझ बेटी अथवा बहन का घर बसाने के लिए तो कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं, झूठ भी बोलना पड़े तो पीछे नहीं हटते, लेकिन समलैंगिकता के मुद्दे पर गाली बकना शुरू कर देते हैं.

अरे भाई! ये लोग भी हाड-मॉस के इंसान हैं, इनमें भी मन और भाव हैं. किसी निम्न जाति के इंसान को जाति सूचक शब्द इस्तेमाल करने पर तो संविधान में मुकदमा कायम करने की सिफारिश की गयी है, फिर लोकतंत्र का कमंडल उठाने वाले इस देश में समलैंगिकों के साथ दोहरा मापदंड क्यों? जबकि हम सब जानते हैं कि ये एक मनोरोग है.

दरअसल पिछले कई वर्षों में हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है, अब जब वही प्रकृति हमारे साथ खिलवाड़ कर रही है तो हम उसे पचा नहीं पा रहे हैं. कालांतर में महिला-पुरुष अनुपात में एक बड़ा अंतर आया है. इसके लिए भी हमारा समाज ही जिम्मेदार है.

इस अंतर के अलावा पढाई या जॉब के फेर में हमने शादी की उम्र के साथ भी समझौता करने की ठान ली, और नाम दिया "मॉडर्न" होने का. स्वाभाविक है कि कई मर्यादाओं के चलते यदि विपरीत लिंगी सम्बन्ध नहीं बन पाते हैं तो शारीरिक ज़रूरतों की मजबूरी के चलते समलिंगी सम्बन्ध पनप जाते हैं. सेना और कई साल तक एक जैसे पेशे में जुटे लोगों के बीच भी ऐसे सम्बन्ध बन जाते हैं.

अधिकाँश लोग विषम लिंगी संपर्क में आने पर पुराने सम्बन्ध ख़त्म कर देते हैं, लेकिन कुछ लोग उसी तरह के संबंधों को जारी रखने के आदी हो जाते हैं. ऐसे लोग बमुश्किल प्रति हज़ार में औसतन तीन या चार होते हैं. सवाल ये उठता है कि जिन बातों के लिए हम और हमारा समाज प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिम्मेदार हैं, क्या उसे एक कानून में बांधकर अन्याय दूर करने की इस अदालती कार्यवाही को भी हम गलत ठहराना चाहते हैं?

मैं नहीं मानता कि कुछ लोगों के इस व्यवहार को कानूनी रूप मिल जाने से आम मनुष्य के प्राकृतिक व्यवहार में कोई बदलाव आयेगा. पहले भी समाज में समलैंगिक लोग होते थे, लेकिन उन्हें कानूनी मान्यता नहीं मिली थी. अब सिर्फ ऐसे मनोरोगियों को कानून साथ रहने की इजाज़त दे रहा है. इससे 99.98 फीसद लोगों की जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, इसलिए ऐसे मामलों पर हमें बहस से बचना चाहिए.

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