झांसी के पास टीकमगढ़ जिले का गांव है जतारा। पांच रक्षाबंधन इसी गांव में 1978 तक मनाए। हम बच्चे हों या हमसे बड़े किशोर अथवा युवा, सभी लोगों के चेहरे राखी के तीन दिन पहले से खिल जाते थे। मन में उत्साह रहता था कि बहनिया कलाई पर फूल जैसी राखी सजाएगी और बदले में देंगे सिंगट्टा..!! दरअसल कमाते तो थे नहीं, मम्मी-डैडी जो देते वही अपनी बहन को सौंपना पड़ता था। दो रुपये मिलते थे बहन को देने के लिए, उसमें भी एक रुपया ज्वाइंट गुल्लक में चला जाता और बहन के हिस्से का एक रुपया भी हम मिलकर खा-पी जाते।
अब न गांव की वो गलियां हैं, न वह किशोर और युवा जो गांव में किसी की भी लड़की को तीन दिन पहले से बहन के नजरिये से देखना शुरू करते और सोचते कि फलां-फलां की बहन से राखी बंधवाकर क्या उपहार दूं? मंदी के बाजार से गुल्लक भी गायब है और महंगाई की मार में दो रुपये की कीमत भी कितनी हो गयी इसका हिसाब नहीं। इन 31 वर्षों में अगर कुछ बचा है तो सिर्फ सिंगट्टा..!! और उसने भी अपना मूल अर्थ खो दिया...
इस बार रक्षाबंधन से तीन दिन पहले फ्रैण्डशिप डे चलन में आया। गाजियाबाद की लम्बी पतली गली में सजने वाले तुराब नगर बाजार के भीतर अपने पैरों पर वैक्स करा ऊंची जींस पहने लड़कियां राखी की दुकानों पर फ्रैण्डशिप बैण्ड पसन्द कर रही थीं। किशोर और युवाओं की आंखें भी राखियों से सजे बाजार में रंगीनी तलाश रही थीं। मतलब यह कतई नहीं कि राखियों की बिक्री नहीं हो रही थी, नई ब्याहताएं अपने पतियों के साथ तफरीह करते हुए और रूढि़वादी लड़कियां भावुक होकर रक्षाबंधन को औपचारिक और अनौपचारिकता के बीच सावन का झूला झुलाने की कोशिश में जुटी थीं। मतलब यह कि अब राखी की दुकान पर फ्रैण्डशिप डे के रंगीन रिस्ट बैण्ड दिखा रहे थे पारम्परिक राखियों को सिंगट्टा..!!
(वैसे 1935 में अमेरिका में जन्म लेने वाली फ्रैण्डशिप डे की कहानी भी कम मार्मिक नहीं है। हुआ यूं कि इस वर्ष अगस्त के पहले शनिवार को अमेरिकी सरकार के आदेश के चलते एक व्यक्ति को मार डाला गया। अगले ही दिन अपने दोस्त की याद में उसके दोस्त ने आत्महत्या कर ली। बाद में सरकार को पता चला कि जिसे मारा गया था वह दोषी नहीं था, बल्कि दोषी उसका दोस्त था, जिसके लिए पहले व्यक्ति ने मौत कुबूल ली, और असली आरोपी ने दोस्त की मौत से क्षुब्ध होकर अपनी जान दे दी। इसी की याद में अमेरिका में प्रत्येक अगस्त माह के पहले रविवार को फ्रैण्डशिप डे मनाया जाने लगा। लेकिन हमने इसके अर्थ को भी सिंगट्टा लगा दिया।)
बहरहाल आज रक्षाबंधन के ठीक एक दिन पहले सुकून तब मिला जब अपनी कार ठीक कराने के लिए एक गैरेज पर मैं रुका। मैकेनिक ने कहा गाड़ी सर्विस मांग रही है, मैंने कहा कल छुट्टी है कितने बजे छोड़ दूं। मैकेनिक तपाक से बोल पड़ा - "साहब कल का दिन कमाई का नहीं, कमाई लुटाने का दिन है.. अपनी बहनों पर... कमाई तो करूंगा सिर्फ उनके प्यार की...."
वाकई मुझे पसंद आया कार मैकेनिक का ये सिंगट्टा..!! जो उसने इन 31 वर्षों के भीतर मेरे व्यक्तित्व में आए दृष्टिकोण-परिवर्तन को दिखाया.....
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बिल्कुल वाजिब फ़रमाया आपने. प्रोग्रेस की अंधी दौड़ में हम अपनी बुनियाद को भूलते जा रहे हैं. रक्षाबंधन सिर्फ एक त्यौहार नहीं है, बल्कि हमारी संस्कृति की अमूल्य निधि है. पर, आज कई वजहों से यह पर्व फ्रेंडशिप-डे जैसे त्योहारों से कम लोकप्रिय प्रतीत हो रहा है. कम से कम महानगरों की आबादी इसको सही साबित कर रही है. यहाँ राखी महज औपचारिकता बन कर रह गयी है.... अच्छा लेख लिखने के लिए बधाई. ऐसे ही लिखते रहें और ब्लॉग साहित्य को समृद्ध करते रहें.
ReplyDelete