ये शहर है पत्थरों का, बेगाना कोई नहीं
इन दरख्तो-शाख में अब, याराना कोई नहीं।
शीशा-ए-बुत चूर होगा, इल्म है सबको मगर,
इस मदरसे का खलीफा, मौलाना कोई नहीं।
कब्र हैं, ताबूत भी हैं, दौड़ती लाशें यहां,
कील सबके हाथ में है, अंजाना कोई नहीं।
मुफलिसों की भीड़ में दो-चार गिनती के खुदा,
बोलते हैं आसमां से, हर्जाना कोई नहीं।
उठ रहे दरिया की जानिब, नाखुदा ये बुलबुले,
खुश न हो इतना ऐ साकी, पैमाना कोई नहीं।
क्यों फकत इल्ज़ाम ले लें, कत्ल का मगरूर हम,
कातिबी खाके-चमन की, बैनामा कोई नहीं।
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बहुत खुब
ReplyDeleteati sundar
ReplyDeleteशीशा-ए-बुत चूर होगा, इल्म है सबको मगर,
ReplyDeleteइस मदरसे का खलीफा, मौलाना कोई नहीं।
अत्यंत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति
bahut baDhiyaa!!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर ग़ज़ल...
ReplyDeleteमुफलिसों की भीड़ में दो-चार गिनती के खुदा,
ReplyDeleteबोलते हैं आसमां से, हर्जाना कोई नहीं।
Bahut badhiya likha hai Bhupesh ji...achchhee lagee apkee rachana.
HemantKumar
एक अलग ही अंदाज़ है आपका।
ReplyDeleteएक उम्दा ग़ज़ल।
शुक्रिया।
ek umda ghazal
ReplyDeletepadhkar achha laga
aabhaar evam shubhkamnayen
umda ghazal kahi bhupeshji,
ReplyDeleteshubhkaamnaayen !
बहुत खूब
ReplyDeleteशीशा-ए-बुत चूर होगा, इल्म है सबको मगर,
ReplyDeleteइस मदरसे का खलीफा, मौलाना कोई नहीं।
khoobsoorat gazal aur ye sher khaas kar jeevan ka sach liye huve......
मुफलिसों की भीड़ में दो-चार गिनती के खुदा,
ReplyDeleteबोलते हैं आसमां से, हर्जाना कोई नहीं।
बहुत खूब।
आपकी कोशिश, आपकी मेहनत, आपका गजल कहने का प्रयास, सराहनीय है. इंसान मरते दम तक विद्यार्थी रहता है और सीखता रहता है. मेरे भाई गजल आपसे थोड़ी और मेहनत मांगती है. यह मत सोचियेगा कि आपके आते-आते मैंने आपको धार पर चढा दिया. टोनिक थोडा तीखा है मगर कारगर भी है. अगर बुरा लगा हो तो बता दें, मैं क्षमा मांग लूँगा.
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