Saturday, August 1, 2009

पत्थरों का शहर

ये शहर है पत्थरों का, बेगाना कोई नहीं
इन दरख्तो-शाख में अब, याराना कोई नहीं।


शीशा-ए-बुत चूर होगा, इल्म है सबको मगर,
इस मदरसे का खलीफा, मौलाना कोई नहीं।


कब्र हैं, ताबूत भी हैं, दौड़ती लाशें यहां,
कील सबके हाथ में है, अंजाना कोई नहीं।


मुफलिसों की भीड़ में दो-चार गिनती के खुदा,
बोलते हैं आसमां से, हर्जाना कोई नहीं।


उठ रहे दरिया की जानिब, नाखुदा ये बुलबुले,
खुश न हो इतना ऐ साकी, पैमाना कोई नहीं।


क्यों फकत इल्ज़ाम ले लें, कत्ल का मगरूर हम,
कातिबी खाके-चमन की, बैनामा कोई नहीं।

13 comments:

  1. शीशा-ए-बुत चूर होगा, इल्म है सबको मगर,
    इस मदरसे का खलीफा, मौलाना कोई नहीं।
    अत्यंत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति

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  2. मुफलिसों की भीड़ में दो-चार गिनती के खुदा,
    बोलते हैं आसमां से, हर्जाना कोई नहीं।

    Bahut badhiya likha hai Bhupesh ji...achchhee lagee apkee rachana.
    HemantKumar

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  3. एक अलग ही अंदाज़ है आपका।
    एक उम्दा ग़ज़ल।

    शुक्रिया।

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  4. ek umda ghazal

    padhkar achha laga

    aabhaar evam shubhkamnayen

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  5. umda ghazal kahi bhupeshji,

    shubhkaamnaayen !

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  6. शीशा-ए-बुत चूर होगा, इल्म है सबको मगर,
    इस मदरसे का खलीफा, मौलाना कोई नहीं।

    khoobsoorat gazal aur ye sher khaas kar jeevan ka sach liye huve......

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  7. मुफलिसों की भीड़ में दो-चार गिनती के खुदा,
    बोलते हैं आसमां से, हर्जाना कोई नहीं।
    बहुत खूब।

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  8. आपकी कोशिश, आपकी मेहनत, आपका गजल कहने का प्रयास, सराहनीय है. इंसान मरते दम तक विद्यार्थी रहता है और सीखता रहता है. मेरे भाई गजल आपसे थोड़ी और मेहनत मांगती है. यह मत सोचियेगा कि आपके आते-आते मैंने आपको धार पर चढा दिया. टोनिक थोडा तीखा है मगर कारगर भी है. अगर बुरा लगा हो तो बता दें, मैं क्षमा मांग लूँगा.

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