Wednesday, November 17, 2010
बस यूं ही अनायास...
अंजान, अपरिचित
बस यूं ही अनायास...
एक पूरा वजूद
बदल डालता है फितरत
बस यूं ही अनायास...
धारा का अविरल द्वंद्व
रोड़ों और चट्टानों के बीच
तलवारें नहीं चलतीं
जुबान भी टकराती नहीं -
दिल और दिमाग के बीच,
जंग नहीं -
चीख-पुकार भी नहीं
बहता है अविरल संगीत
बस यूं ही अनायास...
बादलों की ओट से सूरज का
अस्ताचल का सफर
धरती पर -
सुबह की सैर करता है आदमी
धूप में, हाथ की छड़ी से
ललकारता है बादलों की छांव।
छांव आगे बढ़ती है,
धूप में नहाकर आगे बढ़ता है आदमी -
सिर्फ एक छड़ी से बुहारता
ठंडी छांव,
समेटता धूप को,
या
सिमटता धूप में
अंजलि भर रोशनी के लिए -
बस यूं ही अनायास...
Saturday, October 23, 2010
अलविदा...
कहने से पहले
एक लड़की
मांस का पूरा लोथड़ा
चौदह साल का..
टकटकी लगाए देखती है
बोलती भी है -
- ‘‘खत्म होगा राम का वनवास
फिर पटरी पर लौटेगी जिंदगी -
बोझिल कंधों के हल्का होने पर
कुंठा छोड़, मुस्कुरा लेना
मेरे प्यारे पापा....’’
अल्फाजों का एक-एक लश्कर
चुभ रहा है -
जैसे मेरे ही दिल का टुकड़ा
कुछ कहकर
दिगंत में चुपचाप...
मैं सिर्फ अकेला -
अलविदा...
Thursday, October 15, 2009
बरसे बरस लक्ष्मी न्यारी...
चौदस पर चमके चन्दन.
पावस बने अमावस काली,
गोवर्धन पर हो खुशहाली.
भाईदूज पर दुआ हमारी -
बरसे बरस लक्ष्मी न्यारी...
Wednesday, September 30, 2009
भारतीय राजनीति का आधार है वंशवाद
आबादी और क्षेत्रफल का गणित
दरअसल हम भूल जाते हैं कि हम दक्षिण एशियाई मिट्टी के बाशिंदे हैं, जहां की आबादी का घनत्व क्षेत्रफल से काफी ज्यादा है। इसीलिए यहां उत्पादन के मुकाबले खपत का प्रतिशत काफी ज्यादा रहता है। परिणाम यह होता है कि सिर्फ मुठ्ठी भर लोग ही इस खपत के हिस्सेदार बन पाते हैं, बाकी की जनता गरीबी और गुरबत में पूरी जिंदगी काट देती है।
संघर्ष में गुम होता राजनीतिक सामथ्र्य
रोजी-रोटी की जुगाड़ में दिन कब खत्म हो जाता है, इसका इल्म होते-होते बुढ़ापा आ चुका होता है। इसी जुगाड़ केबीच यहां के गरीबों को जो अनुभव मिलते हैं उनमें अंधविश्वास, धर्म और जातियों की बैसाखी इनकी आत्मा के भीतर ऊर्जा भरती रहती है। ऐसे में संघर्ष और भावनाओं के हिचकोलों के बीच इन बहुसंख्यकों में राजनीति करने का सामथ्र्य ही नहीं रहता।
गरीबों पर इतिहास का दंश
चाहे भारत हो या पाकिस्तान या बांग्लादेश अथवा अफगानिस्तान या नेपाल या श्रीलंका, सभी जगह हालात एक जैसे हैं। इतिहास खंगाल लें - मुठ्ठी भर सवर्णों ने अपना घर ही भरा, और विरासत में अपने वंश को वर्चस्व बनाए रखने की ऊर्जा दी। जबकि दलित, आदिवासी, हरिजन और पिछड़ी हुई बड़ी आबादी सिर्फ क्षेत्रफल के मुकाबले पैदावार की कमी का दंश झेलती रही। ''परचेजिंग कैपेसिटी'' उसके हाथ लगी ही नहीं।
सवर्णों का वर्गीकरण और अपनों को रेवड़ी बांटना
इन सवर्णों में भी वर्गीकरण हो गया, और काम के आधार पर सबने अपने-अपने हित साध लिये। मसलन, मुल्ला-मौलवी और ब्राह्मणों ने शिक्षा की जिम्मेदारी संभाल ली, लड़ाकों ने अपने-अपने इलाके बांट लिए और सामाज की रक्षा का संकल्प ले लिया। जो बचे उन्होंने हुंडी, ब्याज-बट्टा और व्यापार का दारोमदार संभाल लिया। इन्होंने अपने-अपनों को जी-भरकर रेवड़ी बांटी और वंशजों को हुनर के तौर-तरीके सिखाए।
दलित सिर्फ सवर्णों के 'राजनीतिक टॉनिक'
अपनों को रेवड़ी बांटने वाली इस व्यवस्था के प्रति क्षेत्रवादी खिन्नता से उपजे कुछेक दलित या आदिवासी या पिछड़े नेता उपजे हैं, लेकिन राजनीति में सिर्फ सवर्णों ने ही एक-दूसरे का साथ दिया। क्षेत्रवादी नेता सिर्फ इन सवर्णों के 'उपभोग का सामान' या 'राजनीतिक टॉनिक' साबित होते रहे। इसीलिए आज तक कहीं कोई भी दलित, पिछड़ा या आदिवासी नेता वंशानुगत राजनीति का हिस्सा नहीं बन सका। दरअसल उसका तात्कालीन दोहन तो हुआ लेकिन उसे राजनीति जारी रखने का बौद्धिक कौशल नहीं मिला।
राजनीति का चुनाव राजनीति से ज्यादा आसान
ये गरीब लोग सवर्णों द्वारा संचालित राजनीति की दिशा का चुनाव तो कर सकते हैं, लेकिन खुद राजनीति नहीं कर सकते, क्योंकि उनके संघर्ष की पहली पायदान पर परिवार की प्राथमिक जरूरतें आ खड़ी होती है। इनकी आपूर्ति ताउम्र नहीं हो पाती, इसलिए अगली पीढ़ी भी उन्हीं प्राथमिक जरूरतों में ही खपती रहती है। दूसरी तरफ सवर्ण अपने हिस्से का एक निवाला भी गरीबों की झोली में डालना चाहते नहीं।
वंशवाद खत्म हुआ तो फैल सकती है अराजकता
यानी यहां वंशवाद की फसल बोने, काटने और ढोने का काम तो दलित और पिछड़े लोग करते हैं, लेकिन इसके दाने पर तो उसी का नाम लिखा होता है, जिसका खेत पर अधिकार होता है। भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देशों की ये एक जरूरत भी है। अन्यथा एक बड़ी आबादी भूखों मर जाएगी। उसे न तो काम मिलेगा और ना ही हड्डीतोड़ मेहनत के बाद भीख में मिला अनाज। यह परिस्थिति 1930 और हाल ही की वैश्विक आर्थिक मंदी से भी खतरनाक और अमानवीय होगी।
फिर बताएं कौन चाहेगा अपने परिवार के पेट पर लात मारना... इससे तो अच्छा है वंशवाद!!!!
Friday, August 28, 2009
चौबीस घंटे, दो झूठ! पर्दे पीछे बेवकूफ?
झूठ नं. 1 - पोखरण-2 परमाणु परीक्षण में शामिल वैज्ञानिकों का कहना कि मई 1998 में भारत की कामयाबी महज एक छलावा थी। झूठ नं. 2 - हालैंड राष्ट्रीय संग्रहालय के कर्मचारियों का बयान कि पिछले 40 वर्षों से उन्होंने जिस 'पत्थर के टुकड़े' को ''चांद का टुकड़ा'' मानकर संभाले रखा, वह महज एक ''लकड़ी का टुकड़ा'' है।
पहले झूठ का पर्दाफाश (?) उस वक्त परमाणु परीक्षण टीम में शामिल वैज्ञानिक संथानम ने किया, जिनके पक्ष में अन्य वैज्ञानिक भी हैं। पूर्व राष्ट्रपति व तात्कालीन महानिदेशक कलाम, और तात्कालीन परमाणु ऊर्जा विभाग प्रमुख आर. चिदम्बरम ने इसे यह कहकर बेतुका कहा कि तब कुल पांच परीक्षण हुए थे, जिनमें तीन 11 मई को और दो 13 मई को हुए थे। थर्मोन्यूक्लियर विस्फोट 13 मई को हुआ था, जो सफल था।
सवाल यह उठता है कि 11 नहीं, 13 मई ही सही, लेकिन जमीन से सौ मीटर नीचे जहां यह परीक्षण हुआ वहां विस्फोट के बाद ''क्रेटर'' निशान क्यों नहीं बने? उधर संथानम ने सलाह भी दे डाली है कि भारत को अपनी सुरक्षा के लिए और परीक्षण करने चाहिए तथा किसी भी कीमत पर सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने चाहिए।
यानी देश और दुनिया की निगाहों में खुद को मजबूत बताने की सरकारी मुहिम हमारे सामरिक वजूद के साथ समझौते के रूप में पूरी हुई। इसका प्रतिफल डॉ. कलाम को तो राष्ट्रपति बनाकर मिल गया, लेकिन इन वैज्ञानिकों के हाथ कुछ नहीं आया।
दूसरी तरफ, पूर्व डच प्रधानमंत्री विलेम ड्रीस की 1988 में मृत्यु के बाद उनके पास रखे एक पत्थर को हालैंड की राजधानी एम्सटर्डम के संग्रहालय में संजोकर रखा गया। यह पत्थर अपोलो-11 के अंतरिक्ष यात्रियों की हालैंड यात्रा के वक्त अमेरिका के तात्कालीन राजदूत मिलेनडार्फ ने डच प्रधानमंत्री को भेंट किया था। लेकिन अब पता चला है कि यह लकड़ी का एक टुकड़ा है जो समय के साथ कड़ा होकर पत्थर जैसा हो गया था।
यानी या तो अपोलो-11 के अंतरिक्ष यात्रियों ने इतना बड़ा झूठ डच प्रधानमंत्री को भेंट कर दिया, अथवा संग्रहालय के लोगों ने ही पीछे के दरवाजे से कोई हेराफेरी कर डाली है।
बेवकूफों का सच!
1) दोनों ही हालातों में आम जनता सिर्फ बेवकूफ बनकर तालियां पीटती रही, सच्चाई का उसे पता ही नहीं।
2) दूसरी तरफ इसी आम जनता को इससे कोई सरोकार भी नहीं। बस जितनी तालियां बजा लीं, समझो बाबा रामदेव का योगासन कर लिया।
3) तभी तो 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस करने वाली, उसके बाद गुजरात दंगे भुगतने वाली और हाल ही में समलैंगिकता पर तालियां बजाने वाली जनता इतने बड़े झूठ को बस चुपचाप पी गई।
Saturday, August 22, 2009
कोख में किसका है बीज!!!
हर कदम अंगार पे,
इक रोज़ शौहर ने जो पूछा,
आंख भर आई जो साबित -
मैं अकेला ही चला था,
पहले पैबंदे-निशां पे,
सुन ले जन्नत के खुदा,
बेजान कदमों को उठाना -
Tuesday, August 11, 2009
स्वाइन फ्लू कहीं मेडिकल आतंकवाद तो नहीं?
प्लेग, एन्थ्रेक्स, ड्रॉप्सी, बर्ड फ्लू पर भी हुए वारे-न्यारे
इससे पहले भी हैपेटाइटिस-बी से बचाव के नाम पर करोड़ों-अरबों का कारोबार किया जा चुका है। खसरा और पोलियो उन्मूलन के दावे भी किये गये, लेकिन वैक्सीनेशन के बावजूद बीमारी आज भी है। प्लेग, ड्रॉप्सी, एंथ्रेक्स और बर्ड फ्लू जैसी बीमारियों के नाम भी सुनने में आए। प्रभावितों की संख्या भी काफी बताई गई, लेकिन मरने वालों की तादाद 10, 12 या 15 से ज्यादा सुनने में नहीं आई, वह भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर। इससे कहीं ज्यादा लोग तो भूकंप या चक्रवाती तूफान में मारे जाते हैं।
आर्थिक मंदी से जूझने का उपाय तो नहीं?
मैं यह नहीं कह रहा कि इन बीमारियों से मरने वालों के लिए इलाज नहीं खोजा जाय, बल्कि ये कहना चाहता हूं कि बीमारियों के इन खतरनाक नामों और उनके असर का डर बताकर विकसित देश अरबों का कारोबार करते रहे हैं। कहीं स्वाइन फ्लू केबहाने यह आर्थिक मंदी से जूझने का कोई उपाय तो नहीं?
स्वाइन फ्लू डर के बाद मेडिकल बाजार में उछाल!
अंदाजा लगाईए, कि जो मास्क तीन माह पहले सिर्फ दस रुपये में मिलता था आज उसकी कीमत 95 रु. से भी ज्यादा तक है। इसकेअलावा इस मौसम में सर्दी-जुकाम और वायरल अक्सर फैलते हैं, जिनका इलाज साधारण दवाओं से हो जाता है, लेकिन अब हर आदमी उन्हीं लक्षणों में अपने खून और दूसरी जांच कराता फिर रहा है। जाहिर है कि डॉक्टरों और मेडिकल लेबोरेटरी के साथ साथ कमीशन का धंधा भी खूब चल पड़ा है।
सरकार भी कई हजार अरब का बजट बनाकर स्वास्थ्य सेवाओं का विकास करेगी और वैक्सीनेशन के नाम पर अरबों-खरबों का कारोबार होगा सो अलग।
भुखमरी, कुपोषण से मरने वालों की तादाद
दूसरी तरफ भुखमरी और कुपोषण से मरने वालों की तादाद रोकने के लिए महज अनाज और सस्ती सेवाएं हाशिये पर चलीं जाएं, तो कोई बात नहीं। गंदगी के चलते मच्छर मारने के लिए फॉगिंग और नालियों की सफाई का बजट भी स्वाइन फ्लू की भेंट चढ़ जाए तो कोई परेशानी नहीं। आपको जानकर हैरानी होगी कि देश में पिछले तीन माह के दरम्यान भुखमरी के चलते 103 किसान या तो आत्महत्या कर चुके हैं, या मर चुकेहैं। सूरत में हीरा व्यवसाय चौपट होने के चलते इन्हीं तीन महीनों में 37 लोग काल-कवलित हो चुके हैं। कुपोषण केचलते हर माह सैकड़ों बच्चे मौत की नींद सो जाते हैं।
डेंगू, वायरल और चिकनगुनिया से मरते हैं ज्यादा लोग
डेंगू, वायरल या चिकनगुनिया का प्रकोप भी इन्हीं दिनों शुरू होता है और कईयों को मौत दे जाता है। लेकिन न तो सरकार इस भूख से मरने वालों को रोक पाल रही हैं, और न ही मंदी में व्यवसाय चौपट होने के चलते बेरोजगारों को आत्महत्या करने से रोक पा रही है। और तो और मच्छर मारने केलिए कारगर उपाय भी नहीं हो पा रहे हैं, लेकिन स्वाइन फ्लू के नाम पर होने वाला कारोबार जरूर कई सवाल छोड़ रहा है।